मुझे बताया गया कि यहां पर जगह कम पड़ी है तो किसी और कमरे में भी शायद काफी बड़ी मात्रा में लोग बैठे हैं। उनका भी मैं आदरपूर्वक स्मरण करता हूं।
आज 11 सितंबर है। विश्व को 2001 से पहले यह पता ही नहीं था कि 9/11 का महत्व क्या है। दोष दुनिया का नहीं था, दोष हमारा था कि हमने ही उसे भुला दिया था, और अगर हम न भुलाते तो शायद 21वीं शताब्दी का भयानक 9/11 न होता। सवा सौ साल पहले एक 9/11 था, जिस दिन इस देश के एक नौजवान ने कल्पना कीजिए करीब-करीब आप ही की उम्र का, 5-7 साल आगे हो सकते हैं। करीब-करीब आप ही की उम्र का गेरूए वस्त्र धारी दुनिया जिस कपड़ों से भी परिचित नहीं थी। विश्व जिसे गुलाम भारत के प्रतिनिधि के रूप में देख रहा था। लेकिन उसके आत्मविश्वास में वो ताकत थी कि गुलामी की छाया उसके न चिंतन में थी, न व्यवहार में थी, न उसकी वाणी में थी। वो कौन सी विरासत को उसने अपने अंदर संजोया होगा कि गुलामी के हजार साल के बावजूद भी उसके भीतर वो ज्वाला धधक रही थी, वो विश्वास उमड़ रहा था और विश्व को देने का साम्थर्य इस धरती में है, यहां के चिंतन में है, यहां की जीवन शैली में है। यह असामान्य घटना है।
हम खुद सोचें कि हमारे चारों तरफ जब negative चलता हो, हमारी सोच के विपरीत चलता हो, चारों तरफ आवाज़ उठी हो और फिर हमें अपनी बात बोलनी हो तो कितना डर लगता है। चार बार सोचते हैं, पता नहीं कोई गलत अर्थ तो नहीं निकाल देगा। ऐसा दबाव पैदा होता है इस महापुरूष की वो कौन सी ताकत थी कि इस दबाव को कभी उसने अनुभव नहीं किया। भीतर की ज्वाला, भीतर की उमंग, भीतर का आत्मविश्वास इस धरती की ताकत को भली भांति जानने वाला इंसान विश्व को सामर्थ्य देने, सही दिशा देने, समस्याओं के समाधान का रास्ता दिखाने का सफल प्रयास करता है। विश्व को पता तक नहीं था। कि Ladies and Gentlemen के सिवाय भी कुछ बात हो सकती है। और जिस समय Brothers and sisters of America यह दो शब्द निकले मिनटों तक तालियों की गूंज बज रही थी। उस दो शब्दों में भारत की वो ताकत का उसने परिचय करवा दिया था। वह एक 9/11 था। जिस व्यक्ति ने अपनी तपस्या से माँ भारती की पदयात्रा करने के बाद, जिसने माँ भारती को अपने में संजोया था। उत्तर से दक्षिण पूर्व से पश्चिम, हर भाषा को हर बोली को जिसने आत्मसात किया था। एक प्रकार से भारत मां की जादू तपस्या को जिसने अपने भीतर पाया था। ऐसा एक महापुरूष पल दो पल में पूरे विश्व को अपना बना लेता है। पूरे विश्व को अपने अंदर समाहित कर लेता है। हजारों साल की विकसित हुई भिन्न-भिन्न मानव संस्कृति को वो अपने में समेट करके विश्व को अपनत्व की पहचान देता है। विश्व को जीत लेता है। वो 9/11 था विश्व विजयी दिवस था मेरे लिए। विश्व विजयी दिवस था और 21वीं सदी के प्रारंभ का वो 9/11 जिसमें मानव के विनाश का मार्ग, संहार का मार्ग, उसी अमरीका के धरती पर एक 9/11 को प्रेम और अपनत्व का संदेश दिया जाता है, उसी अमरीका के धरती पर उस संदेश को भुला देने का परिणाम था कि मानव के संहार के रास्ते की एक विकृत रूप विश्व को हिला दिया था। उसी 9/11 को हमला हुआ और तब जाकर दुनिया को समझ आया कि भारत से निकली हुई आवाज 9/11 को किस रूप में इतिहास में जगह देती हैं और विनाश और विकृति के मार्ग पर चल पड़ा ये 9/11 विश्व के इतिहास में किस प्रकार अंकुरित रह जाता है और इसलिए आज जब 9/11 के दिन विवेकानंद जी को अलग रूप से समझने की आवश्यकता मुझे लगती है।
विवेकानंद जी के दो रूप, अगर आप बारीकी से देखोगे तो ध्यान में आएगा। विश्व में जहां गए वहां, जहां भी बात करने का मौका मिला वहां बड़े विश्वास के साथ, बड़े गौरव के साथ भारत का महिमामंडन, भारत की महान परंपराओं का महिमामंडन, भारत की महान परंपराओं का महिमामंडन, भारत की महान चिंतन का महिमामंडन उसको व्यक्त करने में वो कभी थकते नहीं थे। रूकते नहीं थे, कभी उलझन अनुभव नहीं करते थे। वो एक रूप था विवेकानंद का और दूसरा रूप वो था जब भारत के भीतर बात करते थे तो हमारी बुराइयों को खुलेआम कोसते थे। हमारे भीतर की दुर्बलताओं पर कठोर घात करते थे और वो जिस भाषा का प्रयोग करते थे उस भाषा का प्रयोग तो आज भी हम अगर करें तो शायद लोगों को आश्चर्य होगा कि ऐसे कैसे बोल रहे हैं। ये समाज के हर बुराईयों के खिलाफ आवाज उठाते थे। और समय के समाज की कल्पना कीजिए जब Ritual का महत्व ज्यादा था, पूजा पाठ, परंपरा, ये सहज समाज जीवन की प्रकृति थी। ऐसे समय 30 साल का एक नौजवान, ऐसे माहौल में खड़ा होकर कह दे कि पूजा-पाठ, पूजा अर्चन मंदिर में बैठे रहने से कोई भगवान, वगवान मिलने वाला नहीं है। जन सेवा यही प्रभु सेवा, जाओ जनता जनार्दन गरीबों की सेवा करो, तब जा करके प्रभु प्राप्त होगा… कितनी बड़ी ताकत।
जो इंसान विश्व के अंदर जा करके भारत का गुणगान करता था, लेकिन भारत में आता था तो भारत के अंदर जो बुराइयां थीं वो बुराईयों पर कठोर प्रहार करता था। वे संत परंपरा से थे लेकिन जीवन में वे कभी गुरू खोजने नहीं निकले थे। ये सीखने और समझने का विषय है। वे गुरू खोजने के लिए नहीं निकले थे। वे सत्य की तलाश में थे। महात्मा गांधी भी जीवन भर सत्य की तलाश से जुड़े हुए थे। वे सत्य की तलाश में थे। परिवार में, आर्थिक स्थिति कठिन थी। राम कृष्ण देव मां काली के पास भेजते हैं। जा तूझे जो चाहिए मां काली से मांग और बाद में पूछा कुछ मांगा, बोले नहीं मांगा। कौन-सा मिजाज होगा, जो काली के सामने खड़े होकर भी मांगने के लिए तैयार नहीं है। भीतर वो कौन सा लौहतत्व होगा, वह कौन सी ऊर्जा होगी जिसमें यह सामर्थ्य पैदा हुआ। इसलिए वर्तमान समाज में जो बुराइयां हैं। क्या हमारे समाज के बुराइयों के खिलाफ हम नहीं लड़ेंगे। हम स्वीकार कर लेंगे। अमरीका की धरती पर विवेकानंद जी Brothers and Sisters ऑफ़ अमरीका कहें। हम खुद नाच उठे। लेकिन मेरे देश में ही मैं नौजवानों को विशेष रूप से कहना चाहूंगा क्या हम नारी का सम्मान करते हैं क्या। हम लड़कियों के प्रति आदर भाव से देखते हैं क्या जो देखते हैं उनको मैं 100 बार नमन करता हूं। लेकिन जो उसके भीतर इंसान नहीं देख पाते हैं, मानव नहीं देख पाते। यह भी ईश्वर की एक कृति है , अपनी बराबरी से है। ये भाव अगर नहीं देखते हैं, तो फिर स्वामी विवेकानंद के वो शब्दशिष्ट Brothers and Sisters ऑफ़ अमेरिका हमें तालिया बजाने का हक है कि नहीं है। 50 बार हमें सोचना है।
हम कभी सोचे हैं विवेकानंद जी कहते थे जनसेवा प्रभु सेवा। अब देखिए एक इंसान 30 साल की उम्र में पूरे विश्व में ऐसा जय-जयकार करके आया है। उस गुलामी के कालखंड में दो व्यक्तित्व जिसने भारत में एक नई चेतना नई ऊर्जा प्रकट की थी। दो घटनाओं ने, एक जब रविंद्रनाथ टैगोर को नॉबेल प्राइज मिला और जब स्वामी विवेकानंद जी का 9/11 के भाषण के देश दुनिया में चर्चा होने लगी। भारत गुलामी के कालखंड में एक नई चेतना का एक भाव पूरे भारत में इन दो घटनाओं ने जगाया था। और दोनों बंगाल की संतान थे | कितना गर्व होता है जब मैं दुनिया में किसी को जाके कहता हूं कि मेरे देश के रविंद्रनाथ टैगोर श्रीलंका का राष्ट्रगीत भी उन्होंने बनाया, भारत का राष्ट्रगीत भी उन्होंने बनाया, बांग्लादेश का राष्ट्रगीत भी उन्होंने बनाया। क्या हम हमारी इस विरासत के प्रति गर्व करते हैं क्या और खोखला नहीं है। आज हिंदुस्तान में, दुनिया में हम एक युवा देश है। 800 मिलियन लोग इस देश में उस उम्र के हैं जो विवेकानंद जी ने शिकागो में भाषण दिया उससे भी कम उम्र के हैं। इस देश की 65 प्रतिशत जनसंख्या विश्व में डंका बजाने वाले विवेकानंद जी की उम्र से कम उम्र की 65 प्रतिशत जनसंख्या जिस देश की हो उस देश में विवेकानंद से बड़ी प्रेरणा क्या हो सकती है और इसलिए विवेकानंद जी ने काम कैसा किया, वो सिर्फ उपदेश देने वाले नहीं रहे। उन्होंने Ideas को Idealism में convert किया और Idealism और Ideas का combination करके Institutional फ्रेम वर्क बनाया। आज से करीब 120 साल पहले इस महापुरूष ने RamKrishna मिशन को जन्म दिया। विवेकानंद मिशन को जन्म नहीं दिया। RamKrishna को जन्म दिया। बात छोटी होती है, लेकिन अकलमंद को इशारा काफी होता है और उन्होंने RamKrishna मिशन का जिस भाव से उदय हुआ। आज 120 साल के बाद भी न Delusion आया है न Diversion आया है। एक ऐसी संस्था को कैसी मजबूत नींव बनाई होगी उन्होंने। फाउंडेशन कितना Strong होगा। Vision कितना क्लियर होगा। एक्शन प्लान कितना Strong होगा। भारत के विषय में हर चीज की कितनी गहराई से अनुभूति होगी तब जा करके एक संस्था 120 साल के बाद भी वो आंदोलन आज भी उसी भाव से चल रहा है।
मेरा सौभाग्य रहा है कि मुझे भी उस महान परंपरा में कुछ पल आचमन लेने का मुझे भी सौभाग्य मिला है। जब विवेकानंद जी के 9/11 की भाषण की शताब्दी थी तो मुझे उस दिन शिकागो में जाने का सौभाग्य मिला था। उस सभागार में जाने का सौभाग्य मिला था और उस शताब्दी समारोह के अवसर पर मुझे शरीक होने का सौभाग्य मिला था। मैं कल्पना कर सकता हूं कि वो कैसा विश्व भाव था। कैसा वो भाव पल था।
क्या कभी दुनिया में किसी ने सोचा है कि किसी लेक्चर के सवां सौ वर्ष मनायी जाए। कुछ पल की वो वाणी, कुछ पल के वो शब्द सवा सौ साल के बाद भी जिंदा हों, जागृत हों, और जागृति पैदा करने का सामर्थ्य रखते हों। ये अपने-आप में हम लोगों के लिए एक महान विरासत के रूप में मनाने का अवसर है।