यदि किसी दक्षिणपंथी संगठन ने पद्मावत की कहानी लिखी होती तो शायद वे संजय लीला भंसाली से बेहतर यह काम नहीं कर पाते. जरा गौर करिए, अलाउद्दीन खिलजी बिल्कुल राक्षस है, जिसकी तुलना यमराज और रावण से होती है. राजपूत विजेताओं की कौम हैं. रानी पद्मावती शिव की तरह जहर पीने वाली है. अगर फिल्म देखने के बाद ऐसी धारणा बने तो आप क्या कहेंगे?
यह फिल्म आपको राजपूत और हिंदू राजाओं के बारे में गौरवान्वित करने की कोशिश करती है. राजपूत ऐसे बहादुर लोग हैं जो हारते नहीं, अगर वे हारते भी हैं तो ज्यादा बलशाली विपक्षी सेना की वजह से नहीं, बल्कि चूक और धोखे की वजह से. रानी पद्मावती कोई ऐसी कमजोर इच्छाशक्ति वाली महिला नहीं हैं, जिसने हार मानकर जौहर किया हो, बल्कि एक योद्धा रानी हैं जो सेना और युद्ध की रणनीति बनाती हैं. जब वे खिलजी को प्रतिबिंब के रूप में अपना चेहरा दिखाती हैं तो भगवान शंकर की तरह अपने लोगों के हित के लिए जानबूझकर जहर पीती हैं. वह सावित्री की तरह हैं, जो अपने पति सत्यवान को जिंदा करने के लिए यमराज से लड़ जाती हैं, मां काली की तरह ताकतवर हैं जो असुरों का संहार करती हैं.
क्या यह ऐसी कहानी नहीं है, जो संघ परिवार और उसके किसी भी समर्थक को गौरवान्वित करे? कहानी इस धारणा को मजबूत करती है कि यह ‘बुरे मुस्लिम’ (जो अफगानिस्तान के रास्ते भारत आने वाला विदेशी है) और ‘अच्छे हिंदू’ की लड़ाई है.
खिलजी है बर्बर बदमाश
गौर करने की एक बात यह भी है कि भंसाली ने खिलजी और उसकी सेना को पूरी तरह से काले कपड़ों और रतन सिंह तथा उनकी सेना को सफेद कपड़ों में दिखाया है. कई तरह के प्रशासिनक सुधारों को अंजाम देने वाले खिलजी को इस तरह से दिखाया गया है, कि वह ऐसा बदमाश है जिसके अंदर कायदे का कोई गुण नहीं है. वह सूअर की तरह खाता है, जानवरों की तरह कामुक है और ऐसा लड़ाका है जिसकी कोई इज्जत नहीं है. क्या वह रानी पद्मावती की सुंदरता पर मोहित हो जाता है? जी नहीं, वह सिर्फ सुंदरता की वजह से उसे हासिल करने की हसरत नहीं करता, बल्कि सच तो यह है कि चित्तौड़ का एक राजपुरोहित उसे बताता है कि पद्मावती उसके तकदीर बदलने की कुंजी है. एक औरत से प्यार करने वाले खिलजी के प्रति भी आपका सम्मान नहीं बढ़ने वाला, क्योंकि आखिर वह बर्बर हमलावर है, जो अक्सर अपने गुलाम मलिक काफूर के साथ रहना पसंद करता है. यहां मलिक काफूर को नखरेबाज, चापलूस, कामुक होमोसेक्सुअल की तरह दिखाया गया है, जो अपने मालिक के प्रति वफादार है.
कल्पना का पुट ज्यादा!
लोकप्रिय इतिहास और चर्चित कहानियों के दम पर भी इसे और बेहतर दिखाया जा सकता था. बस एक सच दिखता है कि राजपूत राजा खिलजी के खिलाफ एकजुट नहीं हो पाए थे, इसलिए रतन सिंह को अकेले लड़ना पड़ा. ‘सत्य’ और ‘असत्य’ के इस ‘धर्मयुद्ध’ में रानी पद्मावती ही उन्हें सलाह देने के लिए बची थीं. फिल्म कहानी को रोचक बनाती है. लड़ाई जब आमने-सामने की हो गई तब भी बात सैन्य कौशल की नहीं थी. चित्तौड़ की हार खिलजी की सबसे बड़ी हार थी, क्योंकि ‘खिलजी के हाथ लगने से पहले पद्मावती का शरीर राख हो जाएगा’. यही नहीं, रतन सिंह खिलजी को वीरता से लड़ाई की पेशकश करते हैं- ‘राजपूत घायल और लाचार पर वार नहीं करते.’
जब खिलजी अपने जोशीले भाषणों से अपने सैनिकों का मनोबल बढ़ाकर यु्द्ध की तैयारी कर रहा था, तो रतन सिंह हर हिंदू त्योहार मनाकर अपने किले के लोगों का उत्साह बढ़ा रहे थे. यही नहीं, खिलजी ने भूत की तरह छह महीने तक रेगिस्तान में इंतजार किया. चित्तौड़ तब होली और दिवाली मना रहा था, जैसे कि सभी अच्छे हिंदू दिल्ली के सुल्तान के हमले का इंतजार कर रहे थे.
हिंदू औरतें महान
पद्मावती से कोई एक संदेश मिलता है, तो यह है कि हिंदू औरतें महान होती हैं. एक बादल की मां है, जो बहादुरी से लड़ रहे अपने बेटे के लिए आंसू नहीं बहाती, क्योंकि राजपूत माएं इसी दिन के लिए तो बहादुर बेटों को जन्म देती हैं. रानी नागमती हैं, जो एक सुंदर, युवा रानी के आने से परेशान जरूर हैं, लेकिन उसके साथ ‘जौहर’ करने के लिए उन्हें एक क्षण भी सोचना नहीं पड़ता. और रानी पद्मावती, उनकी तो बात ही क्या है, उन्होंने तो साहस को सम्मान की तरह वरण किया है और उनके संवाद भी जोश से भरने वाले हैं- ‘राजपूती कंगन में उतनी ही शक्ति है, जितनी राजपूत तलवार में.’
फिल्म में एक जगह यह दिखाया गया है कि खिलजी कुछ चर्मपत्रों को आग के हवाले कर रहा है. जब उससे पूछा जाता है तो वह बताता है कि वह ऐसे इतिहास को जला देना चाहता है जिसमें उसका नाम न हो. जी हां, इतिहास विजेताओं द्वारा लिखा जाता है, लेकिन उनके वंशजों को यह भी अधिकार नहीं है कि अगर कोई चीज उनके विचार के अनुकूल न हो तो इसे बदल दें.