कांग्रेस ने जज लोया मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद 6 और विपक्षी दलों के साथ मिलकर चीफ जस्टिस के खिलाफ महाभियोग लाने का फैसला किया है. महाभियोग लाने को लेकर कांग्रेस अब तक इसलिए उहापोह में थी ताकि, उस पर राम मंदिर के फैसले को रोकने की तोहमत न लगे. ज़्यादातर पार्टी नेता तकनीकी तौर पर तो इसके हक़ में थे, लेकिन सियासी नफे-नुकसान को लेकर कई नेता इसकी मुखालफत कर रहे थे.
भले ही कांग्रेस ने महाभियोग लाने का फैसला जज लोया पर अदालत के फैसले और टिप्पणियों के बाद कर ही लिया, लेकिन राहुल राज की शुरुआत में पार्टी के भीतर कई सवाल उठने लगे हैं. हालांकि, यह ‘दौर-ए-राहुल’ की शुरुआत है तो कोई नेता खुलकर नहीं बोल रहा है. लेकिन इस बात की चर्चा तेज़ है कि हिंदुस्तान के इतिहास जो कभी नहीं हुआ ,वो क़दम कांग्रेस ने उठाने का फैसला किया है.
कार्यसमिति में चर्चा न होने पर सवाल
पार्टी के कई नेताओं ने नाम न बताने की शर्त पर कहा कि महाभियोग का फैसला सही या गलत, विषय ये नहीं है. विषय ये है कि ऐतिहासिक फैसले से पहले पार्टी की फैसले लेने वाली सबसे बड़ी बॉडी कांग्रेस कार्यसमिति में इसकी चर्चा तक नहीं हुई. दिलचस्प बात है कि राहुल को महाधिवेशन में एआईसीसी सदस्यों ने चुनाव के बजाय कांग्रेस कार्यसमिति का गठन करने का ज़िम्मा सौंप दिया था, लेकिन अब तक राहुल उसका गठन तक नहीं कर सके. कुछ नेताओं ने आपस में ले लिया फैसला वैसे नेताओं का मानना है कि कार्यसमिति का गठन अब तक हो जाना चाहिए. लेकिन अगर कार्यसमिति का गठन नहीं हुआ तो कम से कम किसी और नाम से इस मुद्दे पर पार्टी में बैठक बुलाकर बड़े पैमाने पर चर्चा तो हो सकती थी. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. कुछ नेताओं ने आपस में फैसला करके राहुल से हरी झंडी ले ली.
सोनिया की तर्ज पर राहुल गांधी
कांग्रेस अध्यक्ष की कमान संभालने के बाद राहुल पार्टी के भीतर लोकतंत्र की वकालत करते आए हैं. सामने कोई भी नहीं आया हो, लेकिन खुद वो चुनावी प्रक्रिया से पार्टी अध्यक्ष बनने की ज़िद पर अड़े रहे और उसको पूरा भी किया. लेकिन अध्यक्ष बनने के बाद पार्टी में कार्यसमिति का चुनाव सोनिया की तर्ज पर उन्होंने भी नहीं कराया और मनोनीत करने का मैंडेट हासिल कर लिया. लेकिन इतना वक़्त गुज़र जाने पर भी वो इसका गठन नहीं कर सके. इसी बीच इतना बड़ा फैसला हो गया तो सवाल उठना लाज़मी ही है.
पार्टी में थी दो राय , एक के साथ गए राहुल
वैसे दिलचस्प ये है कि, राहुल राज में अक्सर वरिष्ठों को किनारे कर युवाओं को आगे लाने की बात चलती है, जबकि राहुल खुद दोनों के बीच सामंजस्य बैठाने की बार बार वकालत करते हैं. इस महाभियोग के फैसले में भी राहुल ने वरिष्ठ नेताओं में दो-फाड़ देखते हुए एक तबके की आख़िरकार सुन ली. राज्यसभा में विपक्ष के नेता ग़ुलाम नबी आजाद और कपिल सिब्बल की इसमें बड़ी भूमिका रही, जबकि अहमद पटेल, वीरप्पा मोइली, ज्योतिरादित्य सिंधिया और सलमान खुर्शीद जैसे नेताओं की राय दरकिनार कर दी गयी. ऐसे में जब पार्टी के भीतर एक राय न हो और फैसला इतना बड़ा हो, तो फिर पार्टी के भीतर कार्यसमिति में चर्चा होना लाज़मी ही होता है. लेकिन सवाल जस का तस है कि, कार्यसमिति का गठन ही अब तक नहीं हुआ तो चर्चा कैसे? हां, किसी और नाम से पार्टी के भीतर इस मुद्दे पर बड़ी चर्चा तो की ही जा सकती थी, जो नहीं हुई.