*डाॅ0 कामिनी वर्मा*
एसोसिएट प्रोफेसर
काशी नरेश राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय,
ज्ञानपुर, जनपद-भदोही
उत्तर प्रदेश
आत्मसंयम, इन्द्रियनिग्रह, परोपकार, सहनशीलता, उदारता, अपरिग्रह आदि वैयक्तिक गुण भारतीय संस्कृति में जीवनतत्व के रूप जन-जन में विद्यमान है। आन्तरिक एवं वाह्य पवित्रता यहां मानवजीवन को आलोकित करती रहती है। यहाॅ प्रत्येक कार्य में आध्यात्मिक दृष्टिकोण समाहित है। नैतिकता इसका मूलतत्व है। चरित्र बल को यहां सबसे जयादा महत्व दिया गया है।
विवाह एवं परिवार जीवन की मूलभूत संस्था है। भारतीय जीवन में विवाह समझौता न होकर व्यक्ति के जीवन का संस्कार है जो सृष्टि चक्र को गति प्रदान करता है। विवाह संस्कार में कन्या सोच समझकर दी जाती है-
सकृत कन्याः प्रदीयन्ते चिन्तयित्वा
विवाह सूक्त नवविवाहिता को श्वसुर, सास, ननद तथा देवर के ऊपर अधिकार रखने वाली साम्राज्ञी के रूप में आशीर्वाद प्रदान करता है। पति-पत्नी घर के सम्मिलित स्वामी हैं। पत्नी के बिना कोई भी धार्मिक अनुष्ठान, यज्ञ अधूरा रहता है।
आज जहाॅ सम्पूर्ण भूमण्डल इन्टरनेट के द्वारा एक कुटुम्ब का रूप धारण कर करता जा रहा है वहीं पर भौतिकतावादी संस्कृति को भी प्रश्रय दिया है। बदलते परिवेश में मूल्यों और रिश्तों पर बाजार प्रभावी हो गया है। वैश्विक स्तर पर निरन्तर परिवर्तन हो रहे हैं। भारतीय संस्कृति पाश्चात्य संस्कृति को आत्मसात करती जा रही है। समाज और परिवार का स्वरूप तेजी से बदल रहा है। महिलाओं की सोच व स्थिति में आमूल चूल परिवर्तन हो रहा है। आज वह घर के साथ-साथ सार्वजनिक जीवन में भी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करके समाज को नई दिशा भी दे रही है। आज वह न सिर्फ स्वतन्त्रता की मांग कर रही है बल्कि स्वतन्त्रता का उपभोग भी कर रही है। ऐसी स्थिति में समाज में पितृसप्तात्मक व्यवस्था में पुरूष का हमेशा की तरह स्वामी बने रहने के दृष्टिकोण के कारण नया संघर्ष उत्पन्न हो रहा है। वह इस बात को स्वीकार ही नहीं कर पाता है कि उसकी पत्नी उसके बराबर या उसके ऊपर के पद पर रहे अतः दोनो में द्वन्द्ध की स्थिति उत्पन्न हो रही है। आज यह संघर्ष दो व्यक्तियों का संघर्ष न रह कर दो जातियों के संघर्ष का रूपधारण कर रहा है।
आपसी प्रतिस्पर्धा, कार्यस्थल के तनाव ईष्र्या, द्वेष शारीरिक व मानसिक उत्पीड़न पुरूष सहकर्मियों द्वारा की गई व्यूह रचनायें स्त्रियों को बार-बार तोड़ रहे है। फलतः वह ऐसे स्थान की तलाश करने लगी है जहां वह इन दम घोंटू परिस्थितियों से बाहर निकलकर राहत की सांस ले सके। इसी प्रवृत्ति के कारण आज कुछ लोग मानसिक सुकून पाने की चाहत में बिना विवाह संस्कार के साथ-साथ रहने लगे हैं और समाज में एक नये प्रकार का सम्बन्ध सहजीवन ( लिव इन रिलेशनशिप ) अस्तित्व में आ गया है। इस सम्बन्ध में स्त्री पुरूष साथ-साथ रहते हैं लेकिन उनके बीच वैवाहिक सम्बन्ध नहीं होता है। महानगरों में यह सम्बन्ध काफी प्रचलन में है। इस तरह के सम्बन्ध में जब तक यह रिश्ता सामान्य रूप से मधुर रहता है तभी तक अस्तित्व में रहता है कलह की स्थिति में दोनों बिना किसी कानूनी प्रक्रिया के अलग हो जाते है।
भारतीय कानून व्यवस्था में इस प्रकार के सम्बन्ध को मान्यता प्राप्त नहीं है लेकिन वर्तमान कानून में कोई भी व्यस्क एक दूसरे की सहमति से आपस में शारीरिक सम्बन्ध स्थापित कर सकते है। यह कानूनन अवैध भी नहीं है। अर्थात सर्वोच्च न्यायालय भी विवाह के बिना स्त्री पुरूष के साथ रहने को अपराध नहीं मानता। सहजीवन महानगरों में समय के साथ निरन्तर बढ़ता जा रहा है। साथ ही इस सम्बन्ध के पक्ष और विपक्ष में निरन्तर बहस हो रही है प्रगतिवादी विचारधारा के समर्थक इस रिश्ते को विवाह के विकल्प के रूप में मान्यता दे रहे है। उनका मानना है यह रिश्ता आज की भौतिकवादी संस्कृति की देन न होकर हमारे आदिवासी समाज में ‘ घोटुल ’ नामक परम्परा के रूप प्राचीन काल से ही समाज का अंग रहा है। इस परम्परा में विवाह के योग्य युवक युवती कुछ समय के लिये साथ-साथ रहते है यदि वह एक दूसरे का पसन्द करने लगते है और उनको लगता है कि वह वैवाहिक सम्बन्ध में बंध सकते है तो विवाह कर लेते है अन्यथा अलग होकर दूसरा साथी खोजने लगते है।
दूसरी तरफ भारतीय संस्कृति की पोषक दूसरी विचारधारा के समर्थको का कहना है इस प्रकार के सम्बन्ध से भारतीय दण्ड संहिता की धारा 125 से अन्तर्गत दी गई पत्नी की परिभाषा ही बदल जायेगी। विवाह पूर्व सहजीवन सम्बन्ध से कानूनी अड़चने सामने आयेंगी साथ ही वैधानिक विवाह से होने वाले यौन सम्बन्धों का स्वरूप ही बदल जायेगा। निस्सन्देह देश के सामाजिक सांस्कृतिक जीवन के गौरव, समृद्धि, विकास व निरन्तरता के लिये इस विषय पर गम्भीर, चिन्तन व मनन की आवश्यकता है।
भारत में विवाह और परिवार भारतीय समाज का मेरूदण्ड है। वास्तव में सांस्कृतिक रूप से नियन्त्रित और अनुशासित वैवाहिक सम्बन्ध के माध्यम से ही परिवार अस्तित्व में आता है। समाज में विवाह और परिवार का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। परिवार के बिना मानव जाति और संस्कृति का संरक्षण तथा विवाह के बिना परिवार का निर्माण सम्भव नहीं हो सकता। सम्बन्धों के सम्मान पूर्वक निर्वहन के लिये सामाजिक स्वीकार्यता आवश्यक है।
अब प्रश्न उठता है कि समाज का प्रगतिवादी उदार वर्ग जो सामाजिक सांस्कृतिक संस्थाओं का बन्धन स्वीकार किये बिना सहजीवन की संस्कृति को अपनाना चाहता है तो क्या सम्पूर्ण समाज विवाह के इस विकल्प को स्वीकार कर ले। सर्वोच्च न्यायालय का इसके पक्ष में निर्णय है और मीडिया भी इस खुलेपन को प्रश्रय दे रहा है। परन्तु भारतीय जनमानस अभी इतना प्रगतिवादी नहीं पाया है कि अपने सदियों से स्थापित नैतिक मूल्यों का परित्याग कर दे। अनैतिक मूल्यों को प्रोत्साहित करना आधुनिकता नहीं पथभ्रष्टता है। नैतिकता स्वस्थ समाज का प्रमुख अंग है। हालांकि आर्थिक उदारवाद को अपना लेने के बाद सहजीवन की संच्चाई को अनदेखा नहीं किया जा सकता। सेवा के नये अवसरों के उभरने से स्त्री पुरूष की आत्मनिर्भरता, समानता, स्वतन्त्रता की मांग, साथ-साथ काम करना , देर से वि वाह करना तथा सामाजिक जिम्मेदारियों से भागने की प्रवृत्ति के कारण लोग सहजीवन की ओर उन्मुख हो रहे।
परन्तु सहजीवन के दुष्परिणाम भी कम नहीं है। स्त्रियों का उत्पीड़न इससे बढ़ जायेगा। पुरूष किसी भी स्त्री के साथ कुछ समय रहकर उसे सामाजिक सुरक्षा दिये बिना उसका परित्याग कर देगा। जहां युवाओं में यौन उन्मुक्तता बढ़ेगी वहीं पर कोई भी महिला किसी भी पुरूष के साथ रहकर पत्नी होने का दावा करेगी और पारिवारिक सम्पति की मांग करेगी। सामाजिक व सांस्कृतिक संस्थाओं के टूट जाने से युवा पीढ़ी निरंकुश व पथभ्रष्ट हो जायेगी। सहजीवन सम्बन्ध से उत्पन्न बच्चों का जीवन सामाजिक स्वीकार्यता न मिल पाने की स्थिति में कुंठित हो जायेगा।
वास्तव में सहजीवन पश्चिमी संस्कृति का अन्धानुकरण है। पश्चिम अपने उग्रतम रूप में नारी मुक्ति तथा स्त्री तथा पुरूष दोनो के लिये वैवाहिक परिधि के बाहर शारीरिक सम्बन्धों की मांग करता है।
भारतीय संस्कृति तो ‘‘ विश्व मानवता ’’ को एक सूत्र में बांधने में सदैव से समर्थ रही है ‘‘ वसुधैव कुटुम्बकम् “अर्थात् सम्पूर्ण पृथ्वी एक परिवार है , इसका आदर्श है यहां स्त्री-पुरूष ( पति-पत्नी ) शब्द और अर्थ की भाँति ‘‘ वागर्था विव संपृक्तौ ’’ एक दूसरे के बिना अस्तित्व हीन हैं। शिव की कल्पना भी अर्धनारीश्वर के रूप में की गयी है। यहां की संस्कृति इतनी उद्दात्त भावना से परिपूर्ण , उच्च आदर्शो वाली है जहाॅ ‘‘ लक्ष्मण के बिना उर्मिला और उर्मिला के बिना लक्ष्मण ’’ 14 वर्षो का वैवाहिक जीवन दूसरे से दूर रहकर बिना पर स्त्री गमन अथवा पर पुरूष गमन किये बिना सम्पूर्ण सच्चाई व ईमानदारी के साथ व्यतीत करते है। भारतीय संस्कृति विश्व समाज व राष्ट्र के लिये सर्वमान्य आदर्श वातावरण का निर्माण करती है। विश्व कल्याण के लिये आदर्श जीवन मूल्यों को अपनाने की आवश्यकता को प्रश्रय देती है। सृष्टि के कल्याण के लिये मानव को सत्कर्म की ओर अग्रसर होने की प्रेरणा देती है, ऐसी संस्कृति में जन्म लेकर यदि हम समाज द्वारा स्वीकृत विवाह और परिवार जैसी संस्थाओं को ध्वस्त करके स हजीवन का मार्ग प्रशस्त करते है तो आने वाली पीढ़ी निश्चित रूप से हमें ही दोषी मानेगी। अतः हमारा और हमारे समाज का कर्तव्य है कि विवाह और परिवार की गरिमा को बचाकर रखें एवं सांस्कृतिक प्रदूषण के दुष्प्रभावों से स्वयं बचें एवं भावी पीढ़ी को बचायें।