जीवन जीना ही कला है।
डॉक्टर शैलेश श्रीवास्तव ने अंजना वेलफेयर सोसाइटी एवं आईसीएचआर और एलआईसी के सहयोग के साथ इंद्रधनुष वर्कशॉप का समापन 24 फरवारी को हुआ जिसमे विषय था भारतीय कलाओं का इतिहास इसमें प्रख्यात वक्ता शामिल हुए डॉक्टर शैलेश श्रीवास्तव जो की थिएटर जगत के नामी सितारे है उन्हों कहा की
“कलाऍं हमारी सभ्यता हैं।हमारी सभ्यता भी दरअसल कला ही है।
हमारे पूर्वजों ने चौंसठ प्रकार की कलाओं की परिकल्पना की।जिसमें बिस्तर ठीक करना भी कला है,पान परोसना भी।हमारी भाषाऍं और भंगिमाऍं भी,हमारे रहन-सहन के तौर तरीके भी।ये सब कलात्मक हों तो कला है।
हमारा विषय कला इतिहास की पड़ताल करना है। ”
जहाॅं तक कला के इतिहास की बात है तो असलियत यही है कि इतिहास और सभ्यता कलाओं और कलात्मक जीवन का ही होता है। महज़ समय के इतिहास के कोई खास मायने नहीं।मनुष्य की सभ्यता की यात्रा ही इतिहास बनती है। इसीलिए किसी जानवर के इतिहास की बात नहीं सोची जाती।केवल सभ्य मनुष्य और उसकी सभ्यता का ही इतिहास होता है।
इस बात का यह अर्थ नहीं निकाला जाना चाहिए कि सभ्य शहरी जीवन ही कला का हेतु है।जिस गाॅंव और ग्रामीण संस्कृति को हम अपनी अल्पज्ञता के कारण असभ्य मानने जानने लगे हैं वास्तव में सभ्यता उसी संस्कृति की है।उनकी कलाऍं दिखावा नहीं होती बल्कि सहज-स्वाभाविक और जीवनोपयोगी होती हैं और इसी कारण कहीं अधिक अर्थपूर्ण और मूल्यवान भी होती हैं।
‘आर्ट फाॅर दी ऑर्ट शेक’ आजकल समकालीन कला की पहचान मानी जाती है इसी कारण उसके कथ्य में इतनी गिरिवर और अस्पष्ता है कि न तो कलाकार को कुछ पता है और न ही उसे देखनेवाले को।कला के लिए ही कला के नाम पर बस कुछ नया करने की कोशिश भर समकालीन कला का उत्स बनकर सामने आता है तो कला की सामाजिक उपयोगिता और स्वीकृति का प्रश्न भी खड़ा होता है। लेकिन हमारी संस्कृति में कला जीवन का अभिन्न अंग रहा है।श्रम-स्वेद से लथपथ ग्रामीण औरतें धान की रोपाई करते,बुआई करते,फसल काटते,अनाज कूटते साफ़-करते मनोहारी गीत गाती रही हैं पूरे मनोयोग से।उसे नानी दादी से जानने समझने की आवश्यकता है।