“समाज और सरकारी उपेक्षा की मार झेलता – लाया मेला”

हेमंत चौकियाल

आज से तीन दशक पहले तक रुद्रप्रयाग जिले की मदमहेश्वर घाटी और कालीमठ घाटी के ये गाँव भेड़-बकरी पालन और इनसे प्राप्त वस्तुओं के व्यापार की एक बड़ी मण्डी के रूप में प्रसिद्ध थे। इस क्षेत्र की भेड़ बकरियों, ऊन व ऊन से बनी वस्तुओं को खरीदने के लिए दूर-दूर से व्यापारी और जरूरतमंद लोग इस घाटी का रूख करते थे। लोग यहाँ प्रतिवर्ष 20 या 21 अगस्त को होने वाले लाया मेले में आकर बड़ी मात्रा में भेड़ बकरियों की काली व सफेद ऊन खरीदते थे जिससे बाद में स्वेटर, मौजे, दस्ताने बनाकर बड़े बाजारों में ऊँचे दामों पर बेचकर अच्छा मुनाफा कमाया जाता था। मांस के शौकीन लोग ऊच्च हिमालयी क्षेत्रों के बुग्यालों में मुलायम घास के साथ उगने वाली जड़ी-बूटियों को खाकर निरोगी व तंदुरुस्त हुई भेड़ बकरियों को खरीदते थे।”
इस अवसर पर स्थानीय अनाज उत्पादों, रिंगाल से बनी वस्तुओं के साथ ऊन से बने वस्त्रों, जिनमें दोखा (ऊनी कोट), पाखला (ऊनी धोती या साड़ी), कम्बल, पंखी (ऊनी शॉल) प्रमुख होते थे, का व्यापार होता था। इस एक दिनी मेले में ही भेड़ बकरी पालने वाले प्रत्येक परिवार की इतनी आमदनी हो जाती थी कि वो सालभर के लिए अपनी रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने के लिए पूंजी कमा लेता था।

रूद्रप्रयाग जनपद के ऊखीमठ विकास खण्ड के कालीमठ व मद्यमहेश्वर घाटी के हिमालय की तलहटी में बसे गाँवों में सदियों से भेड़ बकरी पालन को प्रमुख व्यवसाय के रूप में अपनाया जाता रहा है। ये भेड़ बकरियां यहाँ के काश्तकारों की आर्थिकी की प्रमुख रीढ़ रही हैं। भेड़ बकरियाँ यहाँ के काश्तकारों के लिए भोजन, वस्त्र नकदी के साथ-साथ वस्तु विनिमय का प्रमुख साधन रही हैं। वस्तु विनिमय में इन भेड़ बकरियों का प्रयोग बहुतायत रूप से होता रहा है। इनके गोबर ने यहाँ के मोटे अनाजों के लिए उर्वरता में भी बड़ी भूमिका निभाई है। चुगान के लिए खड़ी पथरीली चट्टानों पर चढ़ते वक्त आकस्मिक रूप से मृत भेड़ बकरियों का प्रयोग जहाँ भोजन के रूप में होता रहा है, वहीं इन भेड़ों से प्राप्त ऊन द्वारा बनने वाले दोखा (ऊनी कोट), लावा (ऊनी महिला धोती) के रूप में वस्त्रों की आपूर्ति में भी महत्ति भूमिका निभाई है। मृत भेड़ बकरियों की खाल ने यहाँ के वाद्य यंत्रों की पूड़ (वाह्य आवरण)के रूप में यहाँ के समाज में, सांस्कृतिक व धार्मिक अवयवों की विरासत को आगे बढ़ाने में यादगार भूमिका निभाई है। यहाँ के प्रत्येक परिवार का किसी न किसी रूप में इस व्यवसाय से वास्ता रहा है। यहाँ के भेड़ बकरी पालक परिवारों द्वारा होली के बाद चरने के लिए, अपनी पसंद के पालसी के साथ उच्च हिमालयी क्षेत्रों में भेजी गई इन भेड़ों के 5 गते भाद्रपद (20 या 21 अगस्त) को एक निश्चित स्थान पर सामूहिक रूप से ऊन उतारने के इस प्रक्रम को लाया कहते हैं। गढ़वाली भाषा में लाया का अर्थ होता है बाल काटना या बाल उतारना। सावन मास की समाप्ति तक इन भेड़ों के प्रवास को लगभग पाँच माह पूरे हो जाते हैं। इन पाँच माहों में इन भेड़ों की ऊन काफी हद तक बढ़ जाती है। इसी ऊन की कटाई – छंटाई और इस बीच नए जन्मे मेमनों को नमक खिलाने के लिए भेड़पालक पालसी सभी भेड-बकरियों को गाँव के सबसे नजदीकी बुग्याल(घास के मखमली मैदान) में एक निश्चित तिथि (5 गते भाद्रपद, 20या 21 अगस्त)को उच्च हिमालयी क्षेत्र से वापस लेकर आते हैं, जहाँ सामुहिक रूप से इन भेड़ बकरियों की ऊन उतारी (काटी) जाती है। इसी प्रक्रम को लाया कहा जाता है।

कहाँ-कहाँ लगता है ये लाया का मेला-

यों तो उत्तराखंड के अलावा जम्बू कश्मीर, लद्दाख, हिमाचल प्रदेश सहित पूर्वी हिमालयी राज्यों में भी भेड़ बकरी पालन करने वाले काश्कार इनकी ऊन इसी प्रकार से उतारते हैं लेकिन इन राज्यों में इसका समय अलग अलग होता है। उत्तराखंड के ही हिमालय से लगे जनपदों चमोली, उत्तरकाशी में भी इसी प्रकार का लाया अलग अलग समय पर किया जाता है परन्तु रूद्रप्रयाग जनपद के ऊखीमठ ब्लॉक के कालीमठ व मद्यमहेश्वर घाटी के गाँवों – चौमासी, चिलौण्ड के अलावा मद्यमहेश्वर घाटी के राँसी गाँव व केदार घाटी के त्रियुगीनारायण, तोषी गाँवों में भी यह लाया का त्योहार मनाया जाता है।

किन – किन गाँवों के लोग होते हैं शामिल – कालीमठ घाटी के चौमासी व चिलौण्ड के बुग्यालों में मनाये जाने वाले इस मेले में कोटमा, खोनू, जाल मल्ला, जाल तल्ला, स्याँसू, ब्यूँखी, कुणजेठी, कालीमठ गाँव के पशुपालक भाग लेते हैं जबकि मद्यमहेश्वर घाटी के राँसी में मनाये जाने वाले लाया मेले में बेडुला,जग्गी – बागवान, रांसी, गौण्डार के अलावा नजदीकी गांवों के लोग भाग लेते हैं।इसके अलावा बाहरी स्थानों के लोग भेड़ बकरी खरीद के अलावा ऊन से बनी वस्तुओं, स्थानीय उत्पादों की खरीद के लिए इस मेले में आते हैं।

कोश – कोश पर बदले पानी, तीन कोश पर बानी।। की तरह यहाँ के कई क्षेत्रों में लाया को लाय्या, लौ भी कहा जाता है।
क्यों भेजी जाती हैं भेड़ बकरियाँ ऊँचे बुग्यालों में-

हम सब यह जानते हैं कि उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों का मुख्य व्यवसाय खेती और पशुपालन रहा है। घर – गांवों में भेड़ बकरियों के साथ अन्य पशु जैसे गाय, भैंस, बैल आदि भी पाले जाते हैं। संख्या की दृष्टि से भेड़ बकरियां अधिक होती हैं। इतने पशुओं की परवरिश करना परिवार के लिए कठिन हो जाता है। इसलिए घर – गाँवों से भेड़ बकरियों (जो प्रत्येक परिवार में पशुओं की संख्या में अधिक होती हैं।) को कड़ाके की सर्दी पड़ने से पहले तक के लिए पालसियों के सुपुर्द कर दिया जाता है। ये पालसी इन भेड़ बकरियों को चुगाने के लिए होली के बाद, उच्च हिमालयी क्षेत्रों की ओर बढ़ते हैं। पालसियों द्वारा भेड़ बकरियों को इन क्षेत्रों एक प्रमुख कारण यह होता है कि इन उच्च हिमालयी क्षेत्रों में मुलायम व मखमली घास होती है, जो पशुओं के लिए बहुत पौष्टिक होती है जिस कारण ये भेड़ बकरियां अच्छी हृष्ट-पुष्ट हो जाती हैं, जिस कारण इन भेड़ बकरियों के मालिकों से अच्छा मेहनताना मिलता है।

पाल्सी का कार्य और सेवा शर्ते-सामान्य बोलचाल की भाषा में पाल्सी का अर्थ होता है भेड़ बकरियों को पालने वाला।

पाल्सी का कार्य परम्परागत रूप से पीढ़ी दर पीढ़ी चलता है परन्तु रूचि व कौशल के आधार पर कोई अन्य भी पाल्सी बन सकता है। परिवार, जान-पहचान, रिश्तेदारी में से भी अनुभवी पाल्सी अपने भावी उत्तराधिकारी का चयन करते हैं।

पाल्सी का कार्य बहुत मेहनत वाला, जोखिम भरा और बुद्धि चातुर्यता का काम होता है। यदि किसी अन्य व्यक्ति को पाल्सी का काम करना होता है तो प्रारंभिक तौर पर उसे मुख्य पाल्सी के साथ सहायक पाल्सी के रूप में काम करना होता है। पाल्सी का पहला गुण होता है निडरता का। क्योंकि अधिकांशतः एक पाल्सी को देश दुनिया से दूर निर्जन स्थलों पर अकेले भेड़ बकरियों के साथ रहना पड़ता है। हम केवल कल्पना ही कर सकते हैं कि उच्च हिमालयी क्षेत्रों में, निर्जन एकान्त स्थलों पर रहने के दौरान व्यक्ति के रूप में एक सामाजिक प्राणी को किन-किन मनोदशाओं के बीच रहकर जीवन यापन करना पड़ता होगा। दैनिक जीवन में अपने भरण पोषण के लिए भारी वर्षा, हिमपात, ठंड, संसाधनों की कमी से किस कदर जूझते हुए अत्यल्प साधनों से दिनचर्या चलानी होती है?बाघ, तेंदुओं, भालुओं, रेंगने और जमीन पर तथा जमीन के अंदर रहने वाले विषैले जीव जन्तुओं के साथ जूझते हुए किस कदर बेहद संघर्षमय जीवन व्यतीत करना होता है, इसकी मात्र कल्पना से ही एक सामान्य व्यक्ति सिहर उठता है। दीन दुनिया की खबरों से दूर बेहद एकाकी ऋषि-मुनियों सा जीवन जीना पड़ता है। कल्पना कीजिए की बुखार, सिर दर्द जैसी छोटी सी परेशानी से एक सामान्य आदमी कितना परेशान हो जाता है और सारा परिवार उसकी सेवा सुशुर्षा में जुट जाता है, ऐसे में उच्च हिमालयी क्षेत्रों में रहने वाले ये पाल्सी किस कदर इन दिक्कतों से जूझते होंगे। बड़ी बात ये है कि पुश्तैनी और पैतृक रूप से एक अनुभवी पाल्सी जड़ी बूटियों का भी अच्छा जानकार होता है, जिससे इन उच्च हिमालयी क्षेत्रों में पाई जाने वाली जड़ी बूटियों से वे न केवल अपना इलाज बल्कि अपने साथियों और भेड़ बकरियों का भी इलाज करने में माहिर होते हैं। अपच, पेचिश, सिरदर्द, पेट दर्द, कटे – फटे, जले, घाव, विषैले जीव जन्तुओं के डंक का इलाज करने में एक अनुभवी पाल्सी माहिर होता है। इन उच्च हिमालयी क्षेत्रों में सकारण या अकारण जाने वाले शोध दलों, रक्षा दलों, वन्य जीव जन्तुओं से सम्बन्धित विभागों के गश्ती दलों, पर्यटकों के लिए ये पाल्सी लोग भगवान के रूप में तब सहायक बनते हैं जब वे इनके ठिकानों के नजदीक पहुँचते हैं। एक अनुभवी पाल्सी बहुत शानदार पर्यटक व पर्यटन गाइड भी होता है।

पाल्सी को अपने को सौंपी गई प्रत्येक परिवार की इन भेड़ बकरियों का हिसाब किताब भी रखना होता है। पुराने समय के पाल्सी ये पूरा हिसाब किताब मौखिक व अलिखित रूप से याद रखते थे। वे एक नजर में ही सौंपे गए प्रत्येक परिवार के भेड़ बकरियों की पहचान कर लेते थे। किस परिवार की कितनी भेड़ों ने नये बच्चों को जन्म दिया है, उसकी गणना और लालन-पालन इनका धर्म होता था। भेड़ बकरियों के इस पालन पोषण के बदले में इन पाल्सियों को प्रति भेड़ बकरी निश्चित धनराशि (पारिश्रमिक) व खाद्यान्न लाया के दिन या उसके बाद (जब शीतकाल में भेड़ बकरियाँ उनके मालिकों को सौंपी जाती हैं) दी जाती है। अत्यधिक ठंड, जंगली जानवरों व भूस्खलन में मृत होने वाली भेड़ बकरियों का भी पाल्सियों द्वारा हिसाब किताब मालिकों को दिया जाता है। जब पाल्सी अपने आस पास के गाँवों की भेड़ों को ले जाकर उच्च हिमालयी क्षेत्रों में अवस्थित बुग्यालों के लिए प्रस्थान करते हैं तो, जिस प्रकार एवरेस्ट या ऊँची चोटियों पर चढ़ने वाले स्वयं को कुछ कुछ समय के लिए बेसकैंप में रहकर हिमालयी पर्यावरण के प्रति अनुकूलित करते हैं ठीक वैसे ही ये पाल्सी भी भेड़ बकरियों को लेकर कुछ-कुछ दिनों निर्धारित स्थानों पर रुकते हुए उच्च क्षेत्रों के लिए बढ़ते हैं। पुश्तैनी रूप से इनके इलाके व स्थान निश्चित होते हैं। उच्च हिमालयी क्षेत्रों में ये पालसी जहाँ अपने टेंट गाड़ते हैं उस स्थान व निर्मित टेंट रूपी संरचना को आँजा कहा जाता है। ये टेन्ट बांस, रिंगाल व स्थानीय घास (मांमचा) व प्लास्टिक शीट से बने होते हैं। जहाँ वातावरण से अनुकूलित होने के लिए ये पालसी कुछ दिनों रूककर धीरे-धीरे भेड़ बकरियों सहित ऊपरी हिमालयी क्षेत्रों में बढ़ते हैं।लेखक को भी इन पाल्सियों के डेरों में रुकने के दौरान पता चला कि दैनिक जीवन के कुछ कार्यों को वे पालसी लोग परम्परा के रूप में निभाते हैं। जहाँ पर भोजन बनाया जाता है, उसी स्थान पर भोजन करना निषेध होता है। भोजन करने के लिए कुछ दूरी पर जाना होता है। इसके पीछे का वैज्ञानिक कारण यह हो सकता है कि ताकि भोजन करने के दौरान गिरने वाले भोजन का भक्षण करने वाले कीट, जीव जन्तु एक निश्चित दूरी पर ही रहें वो डेरे (तम्बू /आंजा ) के अंदर न आने पायें।

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गौर किया जाय तो इन परम्पराओं के पीछे कितना विशद अनुभव और गहन विज्ञान है कि ये परम्परा मानव व पशुओं को पर्यावरण का संरक्षण करते हुए अनुकूलित करने के लिए ही बनाई गई थीं।
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पाल्सियों के विश्वसनीय साथी और भेड़ बकरियों के रक्षक-

इन भेड़ बकरियों के साथ, इन पाल्सियों का एक और विश्वसनीय साथी साथ रहता है और वो है इनका कुत्ता। ये प्रत्येक टोले के साथ दो या दो से अधिक (भेड़ बकरियों की संख्या के अनुसार) आवश्यकतानुसार रहते हैं। आदि काल में मानव ने जंगली पशुओं में जिसे अपना सबसे नजदीकी विश्वसनीय जानवर बनाया वह कुत्ता ही था। पालिसी इन कुत्तों को इतना प्रशिक्षित कर देते हैं कि उनकी अनुपस्थिति में ये भेड़े जहाँ खड़ी की गई होती हैं घंटों वहीं खड़ी रहती हैं। कुत्ते इन्हें इंचभर भी आगे नहीं बढ़ने देते। ये कुत्ते रात के समय भी जंगली पशुओं से भेड़ बकरियों की सुरक्षा करते हैं। बाघ भालू के आक्रमण के समय ये कुत्ते सामूहिक आक्रमण कर बाघ भालू को घायल कर भागने पर मजबूर कर देते हैं। कई बार तो ये बाघ भालू को भी चीर-फाड़ कर रख देते हैं।

हिमालयी तलहटी के गाँवों की आर्थिकी की रीढ़-लाया के दिन भेड़ बकरियों की ऊन निकालने की गतिविधियों के साथ-साथ पालसी और भेड़ के मालिकों के बीच के मेहनताने की लेन-देन की प्रक्रिया भी इसी दिन सम्पन्न हो जाती है। नवजात मेमनों को नमक खिलाने और घर पर उनकी सुरक्षित परवरिश के लिए छोड़कर पुनः पालसी ऊन निकाली हुई, बड़ी भेड़-बकरियों के साथ आगामी दो-तीन महीनों के लिए अर्थात दीपावली तक के लिए पुनः वापस उच्च हिमालयी क्षेत्रों के लिए चले जाते हैं।

मेले की एक विशेष गतिविधि-

इस मेले का एक खास आकर्षण होता है “पळया” का चुनाव। भेड़ बकरियों के दल के उस सबसे बलिष्ठ भेड़ या बकरी को पळया कहा जाता है जिसकी खास परवरिश होने के कारण जो अन्य भेड़ या बकरियों से सबसे जादा बलिष्ठ, हृष्ट-पुष्ट व मोटी – तगड़ी हो। विभिन्न पालिसियों के भेड़ बकरियों के झुंड में से पळया का चुनाव लोकतांत्रिक पद्धति से किया जाता है । चुनाव करने के लिए प्रत्येक गाँव से एक पुराने व अनुभवी व्यक्ति (पूर्व पालसी) को आमन्त्रित किया जाता है। चार – पाँच गाँवों के इन अनुभवी व्यक्तियों के इस दल द्वारा अपनी सामूहिक सहमति से पळया का चुनाव किया जाता है। पळया को चयनित करने के बाद सम्मान व पुरस्कार के रूप में उस पळया के पालक पाल्सी,उसके मालिक और पळया को बुग्यालों से लाये गये ब्रह्मकमल के फूलों की एक विशेष माला पहनाई जाती है।

ब्रह्म कमल तोड़ने के भी हैं विशेष नियम-

माला के लिए इन ब्रह्मकमलों को ये पाल्सी उच्च हिमालयी क्षेत्र से अपने साथ चुनकर लाते हैं। प्रत्येक पालसी अपने गाँववासियों और भेड़-बकरियों के मालिकों के लिए इन ब्रह्म कमलों को कई किलोमीटर दूर से नंगे पांव चलकर प्रसाद स्वरूप में लाते हैं। यहाँ ब्रह्म कमल को देव पुष्प माना जाता है और इसे नहा-धोकर ही छुआ जाता है। प्रसाद स्वरूप बाँटने के लिए इसे नंगे पाँव, स्नान कर व स्वच्छ वस्त्र पहन कर ही तोड़ा जाता है। इस नियम के पीछे का एक बड़ा वैज्ञानिक कारण यह है कि सभी व्यक्ति इन फूलों का दोहन न करें। बल्कि निर्धारित व्यक्ति ही घने पुष्पों के बीच से छानकर चुनिंदा पुष्पों को तोड़े।

पाल्सियों का किया जाता है विशेष आदर-पाल्सियों को आदर व सम्मान के साथ प्रत्येक परिवार द्वारा इस दिन अपने टेंट में बुलाया जाता है। ये टेंट घास फूस से अस्थाई रूप से उसी दिन बनाया जाता है। मुख्य मेहमान के रूप में पाल्सी का आदर सत्कार किया जाता है।
गाँववासी भी अपने-अपने पालसियों के लिए घरों से पूरी- पकौड़ी,घी आदि बनाकर लाते हैं,जिसे पाल्सी को परोसा जाता है। पाल्सी के मेहनताने का लेन-देन भी इसी दौरान किया जाता है। प्रत्येक वह परिवार जिसकी भेड़-बकरियां चराने के लिए पालसी को सौंपी गई होती हैं, वह परिवार यहीं पर पूर्व निर्धारित मेहनताना पालसी को सौंपता है। इस मेहनताने में नकदी के अलावा, वस्तु, वस्त्र, खाद्य पदार्थ आदि चीजें होती हैं, जिसे पालसी आवश्यकतानुसार अपने पास रखकर, बाकी सामग्री अपने परिवारजनों को सौंप देते हैं, क्योंकि पालसी यहीं से पुन:कम ऊँचाई वाले बुग्यालों की ओर लौट जाते हैं, जहाँ से ने अत्यधिक ठंड बढ़ने व बर्फवारी शुरू होने पर अक्टूबर (दीपावली के आसपास) निचले स्थानों से होकर, अपने घरों को आते (लौटते) हैं।

सीमाओं के सजग प्रहरी हैं ये चरवाहे पाल्सी-

कल्पना ही की जा सकती है कि आम जन जीवन से दूर, दैनिक आवश्यकताओं, भोजन, शयन को सीमित कर, एक पासली ऋषियों का सा जीवन इस दौरान व्यतीत करता है। उच्च हिमालयी क्षेत्रों में अवस्थित बुग्यालों के भ्रमण के दौरान ये पालसी देश की सीमाओं के सजग प्रहरी की भूमिका भी निभाते हैं। जम्बू कश्मीर, हिमांचल जैसे अन्तरराष्ट्रीय सीमा से लगे राज्यों में भारत के ये पालसी, सदियों से भारतीय सेना के लिए संदिग्ध गतिविधियों की जानकारी देने वाले गुप्तचरों की महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते आए हैं। 1999 के कारगिल युद्ध में, पाकिस्तानी घुसपैठियों की पहली पहल खबर भारतीय सेना को इन्ही पालिसियों (जम्बू – कश्मीर क्षेत्र के) द्वारा दी गई थी। उत्तराखंड की चीन से लगी अन्तराष्ट्रीय सीमा की सुरक्षा और घुसपैठियों के कारनामों की जानकारी के लिए ये पालसी, भारतीय सेना के लिए देवदूत सदृश होते हैं।

धीरे-धीरे समाप्ति की ओर है ये पेशा-

बढ़ती भौतिकता व प्रौद्योगिकी का एक बड़ा दुष्प्रभाव यह हुआ कि सदियों से चली आ रही इस खूबसूरत और उत्पादक लोकपरंपरा में भी वक़्त के साथ-साथ आज बहुत बदलाव नजर आ रहा है। धीरे-धीरे इस क्षेत्र में पशु पालकों का मोह इन भेड़ बकरियों से दूर होता जा रहा है, कारण कि इन वस्तुओं के ग्राहक भी कम होते जा रहे हैं । लोगों ने विदेशी वस्तुओं व वस्त्रों को तो तरहीज दी लेकिन सदियों से प्रचलित इन वस्तुओं का उपयोग लगभग बंद सा कर दिया, जिसका सीधा प्रभाव इस क्षेत्र पर पड़ा। आज स्थिति यह है कि ऊन के कोई खरीददार न होने से मजबूरन इन भेड़ बकरी पालकों को ऊन यहीं लाया स्थलों पर छोड़नी पड़ती है।जिसका कारण ये पाल्सी लोग बताते हैं कि- अब न इस ऊन के खरीददार हैं ना ही ऊनी वस्त्रों को बनाने वाले कारीगर। क्योंकि ऊन के इस पूरे काम में ऊन कातने से लेकर वस्त्र बुनने तक की पूरी प्रक्रिया में लम्बा वक्त और बहुत धैर्य की जरूरत होती है। इसलिए युवा इस काम में रूचि नहीं ले रहे। सरकार के स्तर पर भी इस काम को प्रोत्साहित करने की कोई योजना नहीं। इस कारण अब काश्तकार रस्म के तौर पर लाया का मेला आयोजित तो होता है पर उसकी वो रौनक, लोगों का वह उत्साह कहीं दूर चली गयी। दिन प्रतिदिन स्थिति यह हो रही है कि धीरे-धीरे लोग इस व्यवसाय को तिलांजलि दे रहे हैं।

अगस्त्यमुनि के शिक्षक व साहित्यकार गजेन्द्र रौतेला का कहना है कि आवश्यकता इस बात की है कि इस विषय पर सरकार और उसका ऊन-रेशा बोर्ड को गंभीरतापूर्वक विचार कर कोई ठोस योजना बनाकर, उसका प्रचार प्रसार करे, जिससे स्थानीय युवा परम्परागत रूप से चले आ रहे इस व्यवसाय में रूचि बनाये रखें जिससे अन्य स्थानीय युवाओं को रोजगार भी मिले और हमारी धरोहर और विरासत को एक समुचित पहचान भी मिल सके। सरकार का यह कदम न केवल हिमालय वासियों को सुरक्षित रखने के लिए कारगर साबित होगा बल्कि हिमालय की सेहत को सुधारने के इन घाटियों से पलायन रोकने में भी मददगार और कारगर साबित होगा।

कभी हिमालय की तलहटी में बसे गाँवों की आर्थिकी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले पशुपालकों के त्योहार लाया का महत्वपूर्ण स्थान था, लेकिन सरकारों की बेरुखी और नियोजन की अक्षमता व विपणन की सही व्यवस्था न होने के कारण हिमालयी गाँवों की आर्थिकी की रीढ़ कहे जाने वाला यह त्योहार अब अपनी अंतिम सासें गिनता प्रतीत हो रहा है। आवश्यकता इस बात की है कि एक बड़ी सांस्कृतिक विरासत के हस्तांतरण के इस जीवंत मेले को समाज व सरकार दोनों के संरक्षण की आवश्यकता है, ताकि सदियों से चली आ रही यह विरासत पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होकर जीवित बनी रहे।