राशिद हाशमी
(लेखक टीवी एंकर और शारदा यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर हैं)
दिल्ली की चुनावी लड़ाई को इस बार ‘त्रिकोणीय’ बताया जा रहा है। हालांकि त्रिकोण की परिभाषा में थोड़ा झोल है क्योंकि इसमें एक कोने पर खड़ा शख़्स बाक़ी दोनों कोने वालों को इतना छोटा मानता है कि उन्हें मानो त्रिकोण से बाहर ही फेंकने पर तुला है। आम आदमी पार्टी के सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल हर बार की तरह प्रचंड बहुमत का दावा कर रहे हैं और हर चुनावी सभा में ऐसा अंदाज़ है जैसे 2020 फिर रिपीट होने की कगार पर हो। हालांकि ज़िंदा कौमें 5 साल इंतज़ार नहीं करतीं और आवाम की जादूगरी अच्छे अच्छों को चौंका देती है।
पिछले कुछ सालों में केजरीवाल की सियासत किसी जादूगर के शो जैसी हो गई है—हर बार नई ट्रिक, नया दावा और एक नया ‘सबूत’ कि दिल्ली में जो कुछ अच्छा है वो उन्होंने ही किया है। 2013 में उन्होंने कांग्रेस के साथ गलबहियां कर सरकार बनाई, फिर 49 दिनों में इस्तीफा देकर ‘त्याग’ का पाठ पढ़ाया। फिर 2024 लोकसभा चुनाव में I.N.D.I.A. के नाम पर साथ आए, अब 2025 विधानसभा चुनाव आते आते वही कांग्रेस उनके लिए ऐसी हो गई है, जिसे हर रैली में पानी पी-पीकर कोसा जा रहा है। जनता असमंजस में है कि “कौन दोस्त, कौन दुश्मन?” शायद ख़ुद केजरीवाल को भी यह सवाल सोचने का वक़्त नहीं मिला।
कांग्रेस की स्थिति इस त्रिकोण में सबसे दिलचस्प है। तीसरे कोने पर खड़े होकर कांग्रेस बस ये देख रही है कि कब दूसरा और तीसरा कोना आपस में टकरा जाए और उन्हें “बिन मांगी मुराद” का फायदा मिल जाए। चुनाव लड़ें न लड़ें, सीटें मिलें न मिलें उनकी रणनीति बिल्कुल उस पुराने रिटायर्ड चाचा जैसी है, जो ताश के पत्तों की बाजी में कभी जीतने की उम्मीद नहीं रखते पर दूसरों को गच्चा देते रहते हैं।
भारतीय जनता पार्टी को दिल्ली वाले लोकसभा चुनाव में ख़ुश करते हैं, उम्मीदें हिलोरें मारने लगती हैं लेकिन विधानसभा चुनाव आते आते सभी उम्मीदें धराशायी हो जाती हैं। ख़ैर लोकसभा चुनाव में हैट्रिक के बाद हरियाणा और महाराष्ट्र जीत कर बीजेपी का कॉन्फ़िडेंस हाई है। केजरीवाल सरकार पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों के दम पर पार्टी ने कमर कस ली है। वो बात अलग है कि चुनाव से चंद दिनों पहले केजरीवाल ने कुर्सी छोड़ कर ‘त्याग कार्ड’ खेला है। हालांकि चुनावी कार्ड एक ऐसी काठ की हांडी है जो बार बार नहीं चढ़ा करती।
सवाल बड़ा है कि क्या दिल्ली का वोटर इस बार भी अपने किराए के बढ़ते मकान और दफ्तर के रास्ते के जाम को भूलकर नेताओं की लच्छेदार बातों में फंस जाएगा। मोहल्ला क्लीनिक से लेकर सीलमपुर में मेट्रो का विस्तार और बिजली के वादों की रेवड़ियां ऐसे परोसी जाएंगी जैसे दिल्ली को एकदम ‘पेरिस’ में बदलने की तैयारी है। लेकिन याद रहे दिल्ली ने प्याज़ के नाम पर सरकार गिराई है, भ्रष्टाचार के नाम पर कांग्रेस को हाशिए पर ला खड़ा किया है और इस बार कसौटी पर तौली जाएगी आम आदमी पार्टी। दिल्ली के चुनाव वास्तव में त्रिकोणीय हैं— नेताओं के दावों का एक कोना, जनता की हक़ीक़त का दूसरा और भ्रमित वोटरों का तीसरा। पर इस त्रिकोण का चक्रव्यूह तो ऐसा है कि बाहर आने के बाद भी हर कोई सवाल पूछता है—”ये चुनाव थे या बड़ा मज़ाक?”