पक्ष और विपक्ष के स्याह और सफेद में अकसर जनता हो जाती गुम…!! जबां जबां पे शोर था कि रात खत्म हो गई, यहां सहर की आस में हयात खत्म हो गई!

जिसकी संख्या कम होती है जिसके पास बहुमत नहीं होता उसे ही विपक्ष का दर्जा मिलता है! संसदीय लोकतंत्र में उम्मीद की जाती है कि जनता की आवाज उठाने के लिए विपक्ष सड़क पर रहे और सरकार ऐसी जिम्मेदारी से संसद चलाए जहां सबकी आवाज सुनी जाए लेकिन पिछले कुछ समय से यह देखा गया है कि सरकारें संसद का इस्तेमाल कानून पास करवाने के औजार के रूप में करती हैं नए कानूनों और उनमें संशोधनों पर बहस में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं रहती हर पक्ष आरोप लगाता है कि विपक्ष संसद नहीं चलने दे रहा है पक्ष और विपक्ष के इस स्याह और सफेद में अकसर वह जनता गुम हो जाती है जिससे जनतंत्र का निर्माण होता है। संसदीय कार्यवाही की स्थिति टीवी चैनलों की उस बहस की तरह हो गई है जहां हर कोई शोर करता है कोई किसी को सुनता समझता नहीं है!कल तक जो चिंता हम टीवी चैनलों की बहस को लेकर कर रहे थे वही चिंता अब संसद के लिए होने लगी है! पहले टीवी चैनल पर बहस का एक स्तर होता था! पक्ष और विपक्ष अपनी बात रखते थे और खबर प्रस्तोता सूत्रधार का काम करते थे लेकिन धीरे धीरे टीवी चैनल की बहस शोर में बदल गई कौन क्या बोलता है यह समझना मुश्किल हो जाता है इसी तरह लोकतंत्र को भी शोर में बदलने की हालत में पहुंचा दिया गया है यहां संसद चलाने की जिम्मेदारी और गैरजिम्मेदारी का ठीकरा विपक्ष पर फोड़ा जा रहा है! सरकारों के लिए संसद कानून पास करवाने का औजार भर रह गई है! संसद की बहस का टीवी चैनल पर तू तू मैं मैं वाला हश्र पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए खतरे की घंटी है! इसका विश्लेषण महज संसद चलने के खर्चे से नहीं किया जा सकता यह तो पूरे लोकतंत्र की जमापूंजी है जिसे कंगाल किया जा रहा है!!